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Saturday, 30 July 2016

हमारी बॉलीवुड फिल्में थर्ड जेंडर को कैसे दर्शाती हैं?

हमारी बॉलीवुड फिल्में थर्ड जेंडर को कैसे दर्शाती हैं?

Transgender and Bollywood
हमारी भारतीय फिल्म इंडस्ट्री समय के साथ थोड़ी बहुत इस विषय के प्रति संवेदनशील होती गई है लेकिन अभी भी एक बिल्कुल सहज एलजीबीटी प्रोटेगॉनिस्ट का पर्दे पर आना बाकी हैI
शायद एक वक्त आएगा जब लोगों को इस बात पर आश्चर्य होगा कि भारतीय सिनेमा में किसी पुरुष का स्त्रियों जैसा व्यवहार करना लंबे समय तक मज़ाक का विषय बना रहा। देखा जाए तो हिन्दी सिनेमा इस मामले में खासा कठोर रहा हैI हमारी फिल्मों ने उसी निर्ममता से उभयलिंगी (Bisexual), ट्रांससेक्सुअल, होमोसेक्सुअल या ट्रांसजेंडर लोगों का मज़ाक उड़ाने वाला बर्ताव किया जैसा तत्तकालीन सोसाइटी करती थी। एक अर्से तक सिनेमा में इस तरह के किरदार (जिन्हें हम एल.जी.बी.टी भी कहते  हैं) हास्य पैदा करने का ज़रिया बने रहे।
1984 में आई केतन मेहता की फिल्म 'होली' का क्लाइमेक्स हमारी सोसाइटी में मौजूद इस मज़ाक की विडम्बना को सामने रखता है। फिल्म के अंत में उकताहट से भरे उपद्रवी स्टूडेंट्स एक छात्र को अपमानित करने के लिेए उसका सर मूंडने की कोशिश करते हैं। वे उसे घसीटकर बाहर लाते हैं और जबरन साड़ी पहनाकर उसकी परेड कराते हैं। थोड़ी ही देर बाद हम देखते हैं उस छात्र ने पंखे से लटककर सुसाइड कर लिया है। ऐसी न जाने कितनी घटनाएं आज भी भारतीय समाज का हिस्सा हैं, जो किसी सिनेमा, कहानी या खबर तक का हिस्सा भी नहीं बन पाती हैं।
प्रसंग के तौर पर 
सत्तर के दशक में देखें तो पाते हैं कि महमूद ने कुछ फिल्मों में ट्रांसजेंडर किरदारों या हमारी संस्कृति में उनकी उपस्थिति का अच्छा इस्तेमाल किया है। उनके द्वारा निर्देशित 'कुंआरा बाप' में तो एक हिजड़ा-गीत "सज रही गली मेरी मां" का अद्भुत इस्तेमाल भी किया गया थाI यह पहली फिल्म थी जिसमें हिजड़ो को हमारे सामाजिक समूह के एक अंग के रूप में दिखाया गया थाI
आम तौर पर फिल्मों में हिजड़े नायक के शुभचिंतक के रूप में नजर आते हैं। वे नायक की सफलता या उसकी प्रेमिका के मिलने की दुआ करते हैं। इससे एक कदम आगे बढ़कर कुछ फिल्मकारों ने हिजड़ों को सामाजिक टिप्पणियों के लिए भी इस्तेमाल किया है। मणि रत्नम की फिल्म 'बांबे' इसका बेहतरीन उदाहरण है, जहां दंगों के दौरान वे हास्य नहीं एक तल्ख़ सामाजिक टिप्पणी के लिए स्क्रीन पर आते हैं।
हास्य कलाकार से लेकर चरित्र अभिनेता तक
दिलचस्प बात यह है कि हमारी संस्कृति में ट्रांसजेंडर या गैर-सामान्य यौन रुचियों वाले लोगों को हास्य या उपेक्षा से देखे जाने का उदाहरण नहीं मिलता है। हमारी पौराणिक छवियों में भी ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां पुरुष के भीतर स्त्री की कल्पना की गई है। इसमें सबसे प्रमुख छवि शिव की अर्धनारीश्वर की छवि है। इस सबके बावजूद भारतीय सिेनेमा ने ट्रांसजेंडरों को बहुत अलग तरीके से दिखाया जाता रहा हैI
राहुल रवेल की फिल्म 'मस्त कलंदर' को भी इन्हीं हास्य पैदा करने वाली फिल्मों की कैटेगरी में रखा जाना चाहिए मगर इस फिल्म से हम अपनी बात इसलिए आगे बढ़ा सकते हैं क्योंकि यह पहली बॉलीवुड फिल्म थी, जिसमें साफ तौर पर एक समलैंगिक किरदार दिखाया गया।
इस अटपटे से प्रयोग का नतीजा यह निकला कि सिनेमा में ट्रांसजेंडर बाकायदा एक चरित्र के तौर पर स्थापित होने लगे। इसके कई साल बाद महेश भट्ट निर्देशित पूजा भट्ट की फिल्म 'तमन्ना' में हिजड़ा बने परेश रावल के किरदार को बेहद संवेदनशीलता से दिखाया गया था। वैसे इन फिल्मों की पृष्ठभूमि में कई सामाजिक बदलाव भी थे। 'तमन्ना' 1997 में रिलीज हुई थी। इसी दौरान मध्य प्रदेश में पहले ट्रांसजेंडर राजनीतिक शख्सियत शबनम मौसी का उभार देखने को मिला था।
बदलता नजरिया
दरअसल यही वह दौर था जब यह छोटा सा तबका हमारे समाज में अपने लिए सम्मानजनक जगह बनाने की जद्दोजेहद में दिखने लगा था। किन्नरों को वोट डालने का अधिकार मिलने के केवल पांच साल बाद ही 1999 में एक निर्दलीय के रूप में भारी मतों से चुनाव जीत कर शबनम मौसी रातों-रात चर्चे में आ गई थी। राजनीति में इस जोरदार आगाज के बाद प्रदेश के किन्नरों का आत्मविश्वास बढ़ने लगा।
हालांकि मेनस्ट्रीम सिनेमा में ट्रांसजेंडर्स या गैर-सामान्य यौनवृतियों का मजाक उड़ाना खत्म नहीं हुआ, पर उनका अंदाज धीरे-धीरे बदल रहा था। शाहरुख खान की फिल्म 'कल हो न हो' में समलैंगिक रिश्तों को लेकर इस तरह से मजाक रचे गए कि एक ए-क्लास और फैमिली फिल्म होने के बावजूद लोग बिना हिचक उन पर हंसे। यह अश्लील या अभद्र न होकर परिस्थितियों से उपजा हास्य था। इसके लिए किसी हास्य अभिनेता का सहारा नहीं लिया गया बल्कि इसे फिल्म के मुख्य नायको शाहरुख खान और सैफ अली खान पर ही फिल्माया गया। फिल्म की किरदार कांताबेन के सामने घटनाएँ कुछ इस तरह घटती थी कि उन्हें दोनों के बीच समलैंगिक रिश्ता होने का शक होने लगा।
इस फिल्म के हास्य में इतना अंडरकरेंट था कि दर्शकों ने ना सिर्फ इसे पसंद किया बल्कि इस फिल्म ने मुख्यधारा के सिनेमा के लिए एक नया रास्ता खोल दियाI शायद यही वजह थी कि 'दोस्ताना' जैसी फिल्म सामने आई, जिसने समलैंगिक संबंधों को कहानी में एक ट्विस्ट की तरह प्रस्तुत किया।
हास्य से हटकर 
इस दौरान गंभीर कोशिशें भी होती रहीं। इस सिलसिले में 1996 में आई अमोल पालेकर की एक अपेक्षाकृत कम चर्चित मगर अहम फिल्म 'दायरा' का उल्लेख जरूरी है। इस फिल्म में निर्मल पांडे ने एक ट्रांसजेंडर चरित्र को बेहद वास्तविक तरीके से पर्दे पर उतारा था। इसी साल दीपा मेहता की सबसे चर्चित फिल्म 'फायर' आई, जो ननद और भाभी बनी शबाना आजमी और नंदिता दास के समलैंगिक संबंधों को दर्शाती थी। यह फिल्म कई पहलुओं से परंपरागत पुरुषवादी भारतीय मानसिकता पर प्रहार करती थी।
1997 में कल्पना लाजमी की भी एक फिल्म 'दरमियां' आई। किरण खेर मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री की एक खत्म होती अभिनेत्री के रूप में नज़र आई जो अपने बेटे आरिफ जकारिया के ट्रांसजेंडर होने को स्वीकार नहीं पा रही थी। यह एक डार्क फिल्म थी और विषय को तफसील से छूती थी। सन 2002 में अंग्रेजी के नाटककार महेश दत्तानी के नाटक पर आधारित अंग्रेजी भारतीय फिल्म 'मैंगो सूफले' को "फर्स्ट गे मेल फिल्म फ्राम इंडिया" कहकर प्रमोट किया गया। सन् 2008 में लिसा रे और शीलत सेठ अभिनीत भारतीय अंग्रेजी फिल्म 'आइ कांट थिंक स्ट्रेट' की कहानी भी लेस्बियन संबंधों के इर्दगिर्द घूमती है
जल्द ही मुख्य कलाकार भी?
सुखद यह है कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री उत्तरोत्तर इस विषय के प्रति संवेदनशील होती गई है। इसका एक बेहतरीन उदाहरण 2013 में आई 'बांबे टॉकीज' है। भारतीय सिनेमा के 100 सालों को सेलेब्रेट करती इस फिल्म की चार शार्ट फिल्मों में से दो फिल्में काफी संवेदनशील तरीके से इस विषय को छूती हैं। पहली शार्ट फिल्म 'अजीब दास्तां है ये' का निर्देशन किया था करन जौहर ने। करन ने इस फिल्म में दांपत्य जीवन, दोस्ती और समलैंगिकता को लेकर जटिल रिश्तों का तानाबाना बुना
निर्देशक शोनाली बोस और निलेश मनियार की फिल्म 'मार्गरीटा विद अ स्ट्रॉ' में समलैंगिक रूझान को निर्देशक ने पूरी संवेदनशीलता से रखा हैI यह एक केंद्रिय विषय की तरह फिल्म में मौजूद है। यह पहली फिल्म है जो एलजीबीटी चरित्र को बतौर आउटसाइडर नहीं बल्कि इनसाइडर देखती है। यह महज़ एक शुरुआत है अभी एक बिल्कुल सहज एलजीबीटी प्रोटेगॉनिस्ट का पर्दे पर आना बाकी है। उम्मीद है हमें जल्द ही ऐसी फिल्म देखने को मिलेगीI

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