महर्षि पतंजलि के अनुसार - ‘अभ्यास-वैराग्य द्वारा चित्त की वृत्तियों पर नियंत्रण करना ही योग है।'

विष्णु पुराण के अनुसार- ‘जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग; अद्वेतानुभूति योग कहलाता है।'
भगवद्गीताबोध के अनुसार- ‘दुःख-सुख, पाप-पुण्य, शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण आदि द्वन्दों से अतीत; मुक्त होकर सर्वत्र समभाव से व्यवहार करना ही योग है।'
सांख्य के अनुसार- ‘पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्वतः के शुद्ध रूप में अवस्थित होना ही योग है।
योग शब्द, संस्कृत शब्द 'योक' से व्युत्पन्न है जिसका का मतलब एक साथ
शामिल होना है। मूलतः इसका मतलब संघ से है। मन के नियंत्रण से ही योग मार्ग
में आगे बढ़ा जा सकता है। मन क्या है? इसके विषय में दार्शनिकों ने
अपने-अपने मत दिए हैं तथा मन को अन्तःकरण के अंतर्गत स्थान दिया है। मन को नियंत्रण करने की विभिन्न योग प्रणालियां विभिन्न दार्शनिकों ने बतलाई हैं।
मनुष्य की सभी मानसिक बुराइयों को दूर करना का एक मात्र उपाय अष्टांग योग है। राजयोग के अंतर्गत महर्षि पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है।
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाङ्गानि।
1. यम (पांच 'परिहार') : अहिंसा, झूठ नहीं बोलना, गैर लोभ, गैर विषयासक्ति और गैर स्वामिगत।
2. नियम (पांच 'धार्मिक क्रिया'): पवित्रता, संतुष्टि, तपस्या, अध्ययन और भगवान को आत्मसमर्पण।
3. आसन: मूलार्थक अर्थ 'बैठने का आसन' और पतंजलि सूत्र में ध्यान।
4. प्राणायाम ('सांस को स्थगित रखना'): प्राणा, सांस, 'अयामा', को
नियंत्रित करना या बंद करना। साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण करने की
व्याख्या की गई है।
5. प्रत्यहार ('अमूर्त'): बाहरी वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार।
6. धारणा ('एकाग्रता'): एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना।
7. ध्यान ('ध्यान'): ध्यान की वस्तु की प्रकृति गहन चिंतन।
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